World Cancer Day 2021: 50 की उम्र में दृढ़ इच्छाशक्ति से पांच महीने में दी कैंसर को मात

Ankit Mamgain

 

कैंसर
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उत्तराखंड के रुद्रपुर की एक कंपनी में अधिकारी के पद पर कार्यरत हरीश सिंह नेगी ने पांच महीने के भीतर ही फेफड़ों के कैंसर को मात दे दी। अब वह सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं और 26 फरवरी को अपनी बेटी के हाथ पीले करने जा रहे हैं। 

हरीश सिंह नेगी सीआईएसएफ में कार्यरत थे। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर उन्होंने रुद्रपुर की टाटा कंपनी में वरिष्ठ प्रबंधक (प्रशासन एवं सुरक्षा) के पद पर कार्यभार संभाल लिया। दिसंबर 2015 में बलगम के साथ खून आने पर उन्होंने दिल्ली के एक बड़े निजी अस्पताल में जांच कराई तो पता चला कि उन्हें फेफड़ों का कैंसर है। डाक्टरों ने उम्र का हवाला देते हुए कहा कि उनकी कीमोथैरेपी और रेडियोथैरेपी एक साथ नहीं की जा सकती है।

इस पर नेगी ने बताया था कि सड़क दुर्घटना में उनका एक पैर अलग हो गया था। खून रोकने के लिए रुमाल का प्रयोग करके पैर को खुद संभाला था। उनके जज्बे को देखते डॉक्टरों ने कुछ आवश्यक जांचें कराईं और दोनों थैरेपी एक साथ देने का फैसला किया। फरवरी 2016 तक लगातार इलाज कराया। मार्च 2016 में कंपनी में आकर फिर अपनी सेवाएं दीं। इसके बाद अप्रैल से मई 2016 तक फिर अपना दिल्ली के निजी अस्पताल में इलाज कराया और कैंसर को मात देकर लौटे। 

नेगी ने बताया कि दिल्ली के निजी अस्पताल में डॉक्टर आज भी उनका उदाहरण कैंसर के अन्य मरीजों को देते हैं। कीमोथैरेपी और रेडियोथैरेपी एक साथ होने के बाद उनके मुंह में बहुत छाले हो गए थे। 

कुमाऊं में बढ़ रहे हैं कैंसर के रोगी 

कुमाऊं में कैंसर रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है। स्वामी राम कैंसर इंस्टीट्यूट की ओपीडी में प्रतिवर्ष 8352 रोगी आते हैं। वर्ष 2020 में यह संख्या 6214 हो गई। कुमाऊं में मुंह, गले और बच्चेदानी के कैंसर रोगियों की संख्या सबसे अधिक है। 

मुंह और गले के कैंसर के रोगी : 23 प्रतिशत 
बच्चेदानी के कैंसर के रोगी : 19 प्रतिशत 
स्तन कैंसर के मरीज  : 12 प्रतिशत
फेफड़े के कैंसर के रोगी 15 प्रतिशत 

दो जरनल भी प्रकाशित 

स्वामी राम कैंसर इंस्टीट्यूट में पेशाब की थैली का कैंसर और मुंह एवं गले के कैंसर को लेकर शोध किया गया। दोनों को लेकर दो जरनल भी प्रकाशित हुए। इंस्टीट्यूट के प्रमुख डॉ. केसी पांडे ने बताया कि पेशाब की थैली के कैंसर पर सबसे अधिक काम जापान में हुआ है, जबकि मुंह एवं गले के कैंसर को लेकर देश के कई बड़े संस्थानों में काम हुआ। बड़े संस्थानों से तुलना करने पर स्पष्ट हुआ कि उनके जैसा इलाज यहां भी मरीजों को मिल रहा है। इसके अलावा दो जनरल और प्रकाशित हुए हैं। 

धरातल पर नहीं उतर पाया है स्टेट कैंसर रिसर्च इंस्टीट्यूट 

 वर्ष 2014-2015 से चल रहा स्टेट कैंसर रिसर्च इंस्टीट्यूट का प्रोजेक्ट अभी तक धरातल पर नहीं उतर पाया है। इंस्टीट्यूट के लिए वर्ष 2019 में शासन से 152 पद स्वीकृत किए गए थे। ब्रिडकुल को निर्माण का जिम्मा सौंपा गया था। अभी तक वन भूमि का पेच फंसा हुआ है। हालांकि, स्टेट कैंसर रिसर्च इंस्टीट्यूट के लिए नए सिरे से वन भूमि मांगी गई है। इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ. केसी पांडे का कहना है कि एनजीटी ने इंस्टीट्यूट के लिए सैद्धांतिक सहमति दे दी है।

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